सार्वजनिक चिकित्सा व्यवस्था की बदहाली एक चिंता का विषय है। देश की आम जनता अपने अनुभवसे इसे महसूस करती रहती है। अनेक अध्ययन और विश्व स्वास्थ्य संगठन केआंकड़े इस कटु सत्य से समय-समय पर हमें रूबरू करते रहे हैं। डेढ़ वर्ष पहले केंद्रीय ग्रामीण विकासमंत्री श्री जयराम रमेश ने स्वीकार किया कि देश की जन स्वास्थ्य व्यवस्था ध्वस्त हो चुकीहै। सार्वजनिक स्वास्थ्य के मामले में हम बांग्लादेश और केन्या जैसे गरीबदेशों से भी पिछड़ चुके हैं।
एक कल्याणकारी राज्य भारत के लिए सोचने का समय आ गया है कि क्यों ‘स्वस्थ भारत’ हमारी पहली प्राथमिकता नहीं बन पा रहा है। ऊंची विकास दर के बावजूदसामाजिक विकास के मानकों पर हम पिछड़े हैं । संयुक्तराष्ट्र की मानव विकास की रिपोर्ट प्रत्येक वर्ष हमें आगाह करती है कि स्वास्थ्य पर अभी हमें बहुत ध्यान देना है। सार्वजनिक चिकित्सा व्यवस्था पर हमारा सरकारी खर्च काफी कम है। देश केचालीस फीसद से ज्यादा बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। प्रसव के दौरान स्त्रियोंऔर बच्चों की मृत्यु दर के मामले में भारत का रिकार्ड दुनिया में बेहद खराब है। साधारण बीमारियों से हर साल लाखों लोगों का मरना स्वास्थ्य सेवाओं मे हमारी अनदेखी का ही परिणाम है। एक और जहां सरकारी अस्पतालों कीदुर्दशा चिंता का विषय है वहीं निजी अस्पतालों मे बीमार व्यक्ति के पैसे से उसका ही क्लिनिकल ट्राइल चिंता का विषय है। समृद्ध वर्ग का सरकारी सेवाओं पर भरोसा कम है इसलिए चिकित्सा पर देश में सत्तर फीसद स्वास्थ्य-खर्च निजी स्रोतों से पूरा किया जाताहै।
इस संदर्भ मे बेहद महत्वपूर्ण तथ्य है कि अमेरिका जैसे विकसित और धनी देश में भी लोगों को अपनी जेब से चिकित्सा में इतनाव्यय नहीं करना पड़ता। अधिकतर विकसित देशों ने सार्वजनिक चिकित्सा तंत्रको कमजोर करने की गलती नहीं की है। अमेरिका के राष्ट्रपति के चुनाव मेंबराक ओबामा को दुबारा कामयाबी की एक बड़ी वजह उनकी ‘हेल्थ केयर’ योजनाभी थी। इससे हमारे देश को कुछ सबक लेने की जरूरत है।
नई नई बीमारियों के द्वारा निजी अस्पताल पैसा कमाने का कोई मौका नहीं छोडते हैं। जापानी बुखार, डेंगू, स्वाइन फ्लू के द्वारा मुनाफे को केंद्र में रख कर चलने वाले चिकित्सा केकारोबारियों से यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि वे इन समस्याओं से निपटने कोप्राथमिकता देंगे। भारतीय नागरिकों पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों के द्वारा किए जा रहे अवैध परीक्षणों पर सूप्रीम कोर्ट ने भी सरकार को चेताया है। एक जनहित याचिका पर न्यायमूर्ति आर एम लोढा और न्यायमूर्तिअनिल आर दवे की खंडपीठ का यहाँ तक कहना था किदवाओं के अवैध परीक्षण देश में ‘बर्बादी’ला रहे हैं। नागरिकों की मौत के जिम्मेदार परीक्षणों के इस ‘धंधे’को रोकने के लिएसमुचित तंत्र स्थापित करने में सरकार क्यों विफल रही है। न्यायालय ने इसके साथ हीनिर्देश भी दिया था कि देश में भविष्य मे अब सभी दवाओं के परीक्षण केंद्रीय स्वास्थ्यसचिव की देखरेख में ही होंगे। सरकार को स्थिति की गंभीरता को समझते हुए तत्काल इस समस्या से निबटना चाहिए। अनियंत्रित परीक्षण देश में बर्बादी ला रहे हैं और सरकार गहरी नींद में है। यह जानकर हमें दुख होता है कि नियमों का प्रारूप दिखा कर ये कंपनियांहमारे देश के बच्चों को बलि का बकरा बना रहीं हैं।
चिकित्सकीय परीक्षण कितने खतरनाक हैं इसके लिए एक चौकाने वाला आंकड़ा आपके सामने रखता हूँ। अवैध परीक्षणों मे मानसिक रूप से बीमार 233 मरीजों और 0-15 साल उम्र के 1833 बच्चों पर भी परीक्षण किए गए थे। जिसकी वजह से सन् 2008 में 288, 2009 में 637 और 2010 में 597 लोगों की जान चली गई । अब मेरे मेरे खयाल से सामान्य बुद्धि का व्यक्ति भी इतना समझ सकता है कि परीक्षणों मेंजान गंवाने वाले व्यक्तियों के परिवारों पर क्या बीतती होगी । पहले तो परिवार महंगे खर्च के द्वारा पैसों से हाथ धो बैठता है और बाद मे अपने मरीज से भी । जान गंवाने वाले व्यक्ति तो वापसनहीं आ सकते हैं। किन्तु हम और हमारी सरकार की जागरूकता देश को अस्वस्थ और गरीब होने से तो बचा ही सकती है।
हमारे लिए अब उपयुक्त समय है कि अब हम इस बात को समझे कि स्वस्थ नागरिक ही विकसित भारत का निर्माण कर सकते हैं। एक बीमार राष्ट्र कभी ऊँचाइयाँ प्राप्त नहीं कर सकता। जन स्वास्थ्य समवर्ती सूची में आता है, यानीयह मसला केंद्र की जिम्मेदारी से भी ताल्लुक रखता है और राज्यों की भी। जबकि विधि का कुछ जानकार होने के नाते मेरा ये मानना है कि स्वास्थ्य को मूल अधिकार के अंतर्गत रखना ही देशहित मे है। संविधान का अनु0 21 हमें जीवन का अधिकार प्रदान करता है। मोहिंदर सिंह चावला के वाद मे सरकारी कर्मचारी को स्वास्थ्य सेवा प्रदान करना सरकार का संवैधानिक कर्तव्य माना गया। किन्तु देश के प्रत्येक नागरिक का स्वस्थ रहना देश हित मे ही होगा। संविधान का अनु0 -32 हमारे मूल अधिकारों को ही हमारा मूल अधिकार बनाता है ऐसे मे स्वास्थ्य सेवाओं की अनदेखी खतरनाक भी है और असंवैधानिक भी ।
- कुछ हद तक कानून और संविधान मे प्रावधान तो पर्याप्त हैं। नियत का पक्ष ज़्यादा महत्वपूर्ण है। संबन्धित व्यक्तियों की नेकनीयती बेहद संवेदनशील पक्ष है। ग्रामीण क्षेत्रों की स्वास्थ्य सुविधाओं के सुदृढीकरण एवं सुधार हेतु देश के नौकरशाहों भी को अंग्रेजीमानसिकता से उबरना होगा,क्योंकि केवल वातानूकूलित कक्ष में बैठकर सुदूर आदिवासी एवं ग्रामीण क्षेत्रों कीस्वास्थ्य सुविधा को चुस्त नहीं किया जा सकता। बुनियादी स्वास्थ्य के लिए आवश्यक है कि विधायिका एवं कार्यपालिका समाजके अंतिम व्यक्ति को ध्यान में रखकर अपनी कार्ययोजना बनाए ताकि आमनागरिकों को समतामूलक स्वास्थ्य सुविधा सुलभ हो सके। केवल स्वस्थ समाज सेही समृद्ध राष्ट्र की अवधारणा साकार हो सकेगी, इसके लिए सरकार, सरकारी एवं गैरसरकारी संगठनों एवं सभी संबन्धित व्यक्तियों मे प्रतिबद्धता आवश्यक तत्व है।
“जब विशिष्ट वर्ग का संसाधनो पर एकाधिकार हो जाता है तब वो शिष्टता और नैतिकता को तांक पर रखकर धन और शक्ति अर्जित करने की प्रवृत्ति का परिचय देते हैं।” महात्मा गांधी
लेखक - अमित त्यागी